पूर्वजों को श्राद्ध - तर्पण जीवित मां-बाप को वृद्ध आश्रम? - सुभाष चंद महेश (तापडिय़ा ) |
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अपने पूर्वजों को मान- सम्मान, याद करने के लिए शास्त्रों में प्रति वर्ष 15 दिन श्राद्ध के लिए निर्धारित पितृ पक्ष के है। इन दिनों में उन पूर्वजों को याद किया जाता है जिनके कारण आज हम हैं। आज भी शास्त्रों में धर्म परायण लोगों के लिए यह व्यवस्था दे रखी है कि पूर्वजों को याद व सम्मान देने से कोई और कार्य बड़ा नहीं है। यह ध्यान में रहते हुए इन दिनों अन्य और कोई शुभ कार्य करने को निषेध माना जाता है, फिर भी कुछ लोग वृद्ध माता-पिता को लावारिस की तरह वृद्ध आश्रमों में छोड़ देते हैं यह कैसी मानवता है इससे तो मानवता, सामाजिकता भी तार तार हो जाती है। लोग पूर्वजों के श्रद्धा के दिन पंडित को बुलाकर श्राद्ध की क्रिया विधि विधान से संपन्न कराते हैं और जिस पूर्वज का श्राद्ध होता है उसकी रुचि के अनुसार पंडित जी को भोजन व श्रद्धा अनुसार वस्त्र व दक्षिणा दी जाती है इसके पीछे भावना यह बताई जाती है कि पूर्वज यह देखकर संतुष्ट रहें कि जो बीज उन्होंने बोला था वह छाया देने वाला वट वृक्ष हो गया है, पर यह देखा जा रहा है कुछ लोग धर्म-कर्म करते देखे जाते हैं एवं श्रद्धा की परंपरा को पूरी करते हैं फिर भी जीते जी अपने मां-बाप को वृद्ध आश्रमों में भेज देते हैं। युवा पीढ़ी को सोचना होगा कि अपने वृद्ध परिजनों से होने वाली जरा सी असुविधा के कारण उन्हें वृद्ध आश्रम में भेज देते हैं उसी प्रकार उनकी संतान भी उनको अलग करने में जरा भी संकोच नहीं करेगी। संत लोग कहते हैं कि बच्चे जैसा देखते हैं वैसा ही सीख जाते हैं। हमने ईश्वर को नहीं देखा है फिर भी हम ईश्वर से हर समय अपनी इच्छा पूर्ति के लिए कुछ ना कुछ मांगते रहते हैं। इच्छा पूर्ति के लिए एक के बाद एक दूसरे देवता से मांगने चले जाते हैं। आप ईश्वर से मांगे इसे कोई बुरा नहीं कहेगा पर मां-बाप को जिन्होंने बिना मांगे अपना सब कुछ हमें दे दिया है उनका काम निकालने के बाद वृद्ध आश्रम में भेज दे इसको कोई भी सही नहीं कहेगा वास्तव में मां-बाप तो ईश्वर की श्रेणी की में ही हैं क्योंकि मां-बाप से ही जन्म लेकर हम पृथ्वी पर आए हैंऔर देवता से तो मांग रहें हैं, परंतु मां-बाप तो बिना मांगे ही दे रहे है। वृद्धावस्था में मां-बाप को बच्चों के सहारे की सबसे बड़ी आवश्यकता होती है। बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है। वृद्धावस्था में शरीर के सब अंग सुचारू रूप से नहीं चलती, बीमारी होने पर डॉक्टर व अस्पताल की आवश्यकता पड़ती है। सबसे बड़ी उन्हें यह तसल्ली चाहिए, कि हमारी सुध लेने वाला भी कोई है। ऊपर से उनके पास धन का भी अभाव हो जाता है, यदि धन भी है तो धन से तसल्ली नहीं मिलती, क्योंकि तसल्ली तो सबसे अधिक उन्हें अपने किसी विश्वास पात्र अथवा संतान के मीठे बोल से ही मिलती है जो पूछता रहता है कि दवाई मत भूल जाना। यह भी सत्य है कि आश्रम रहने वाली बुजुर्ग चाहे किसी भी हाल में रहे, परंतु वे अपनी औलाद का बुरा नहीं सोचती। बस यह है जरूर कहते हुए सुने जाते हैं कि इस जन्म में तो हमने कोई ऐसी कार्य नहीं किया है यह तो कोई पूर्व जन्म के कारण यह फल मिल रहा है। कहीं कहीं यह भी देखने में आता है कि वृद्ध जनों का परिवार से दूर रहने का कारण वह व्यक्ति स्वयं ही बना हैं। जो बच्चे बचपन में हॉस्टल में चले जाते हैं अथवा बच्चा घर में आया के भरोसे दिन भर छोड़ दिए जाते हैं। ममता के साये से दूर पले-बढे बच्चों ने कहा देखा है कि माता-पिता ने किस परिस्थिति में उन्हें पाला है। फिर बच्चों को मां-बाप की कुर्बानियों का एहसास कैसे हो? उनका मां बाप के प्रति लगाव कम ही होता है। वृद्धावस्था तक व्यक्ति ग्रस्तआश्रम की सारी जिम्मेदारी से प्राय: मुक्त हो जाता है। खाली दिमाग को वह पर निंदा की तरफ लगा देता है। जैनरेशन गैप होने के बात भी उसको अपनी योग्य संतान पर भरोसा नहीं होता। अपनी मनमानी चलाना चाहता है जो अकारण ही परिवार में बैर भाव, अलगाव का कारण बन जाता है और वह अपने लिए बहुत बड़ा दुख ले लेता है, पर आज की सामाजिक दशा व्यक्ति को यह भी चेतावनी देती है कि भावुकता में अपनी सारी पूंजी पर बच्चों को अधिकार दे देता है। वह फिर उनके आगे हाथ फैलाये वह भी बुरे दिन लाने का कारण हो सकता है। अत: स्वयं को भी सचेत रहने की आवश्यकता है।
सुभाष चंद महेश (तापडिय़ा )
शिक्षाविद् व साहित्यकार, हापुड़ मो. 9897222276 |
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