श्राद्धः श्रध्दा एवं कृतज्ञता का पर्व - कृष्णचन्द्र टवाणी
भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक सोलह दिन, श्राद्ध पक्ष अथवा महालय पक्ष कहलाते हैं। इस वर्ष श्राद्ध पक्ष 07 सितम्बर से 21 सितम्बर 2025 तक मनाया जायेगा। ये दिन पूर्वजों और ऋषियों-मुनियों के स्मरण-तर्पण के दिन माने जाते हैं। श्राद्ध यानी "श्रद्धया यत् क्रियते तत्।" श्रद्धा से जो अंजलि दी जाती है उसे श्राद्ध कहते हैं। जिन पितरों ने और पूर्वजों ने हमारे कल्याण के लिए कठोर परिश्रम किया, रक्त का पानी किया, उन सबका श्रद्धा से स्मरण करना चाहिए और वे जिस योनि में हो उस योनि में उन्हें दुःख न हो, सुख और शांति प्राप्त हो, इसलिए पिंडदान और तर्पण करना चाहिए।
तर्पण करने का अर्थ है तृप्त करना, संतुष्ट करना। जिन विचारों को संतुष्ट करने के लिए, जिस धर्म और संस्कृति के लिए उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया हो, उन विचारों, धर्म और संस्कृति को टिकाये रखने का हम प्रयत्न करें, उनकी प्रतिष्ठा बढ़े ऐसा व्यवहार तथा जीवन बनायें तो वे जरूर तृप्त होंगे। प्रतिदिन देव, पितर तथा ऋषियों की तृप्ति रहे ऐसा जीवन जीना चाहिए और वर्ष में एक दिन जिन पितरों को, ऋषि को हमने माना हो उनके श्राद्ध निमित्त हमारे जीवन का आत्म परीक्षण करना चाहिए और हम कितने आगे बढ़े और कहाँ भूलें की उसका तटस्थ बनकर विचार करना चाहिए।
श्राद्ध परम्परा को टिकाता है, सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखता है। निर्सग जिसे शरीर से ले जाता है उसको श्राद्धमय स्मरण अमर बनाता है। काल ने जिनका नाश किया परन्तु कर्मों और विचारों ने जिन्हें चिरंजीवी बनाया है, ऐसे धर्मवीरों और कर्मवीरों का कृतज्ञ भाव से पूजन करके इन दिनों में कृतकृत्य होना चाहिए। भारतीय संस्कृति की महानता, भव्यता, दिव्यता इन ऋषियों की आभारी है। भारत की आज भी विश्व में जो मान्यता है उसका कारण हमारे पूर्वज हैं। भावी पीढ़ी आनंदमय जीवन जिए इसलिए उन्होंने निरपेक्ष भाव से दिव्य आचार-विचार की संपदा दी है। स्वयं जलकर लोगों के जीवन प्रकाशित किये, इसलिए समाज उनका ऋणी है। हम पर देवों और ऋषियों का ऋण है। इन निःस्वार्थी कर्मयोगियों के ऋण से मुक्त होने के लिए हमें क्या-क्या करना चाहिए, इसका इन पन्द्रह दिनों में विचार करना चाहिए है।
श्राद्ध में पंचग्रास निकालना क्यों जरूरी है ?: जिस तरह शरीर पंचततत्वों से बना है उसी तरह श्राद्ध कर्म के दौरान पंचग्रास का महत्त्व है। अर्थात् आमंत्रित ब्राह्मण को भोजन कराने से पूर्व पाँच भोग निकालकर श्राद्ध कर्म प्रारंभ किया जाता है। इसमें एक भाग गाय का, एक कौए का, एक कुत्ते का, एक चींटी का, एक देवता (अतिथि) का होता है। यदि किसी कारण से घर में भोजन बनाने की व्यवस्था न हो तो फल और मिष्ठान आदि का दान भी किया जा सकता है। कौए (काक) ग्रास अर्थात कौए के लिए भोजन रखना क्यों जरूरी है ? जब पीपल एवं वटवृक्ष के फल कौए खाते हैं तो उनके पेट में बीज उगने लगते है। कौऐ जहाँ-जहाँ बीट करते हैं वहाँ-वहाँ यह दोनों पेड़ उगते है। कुछ लोगों का मत है कि कौऐ यमराज का प्रतीक है यदि कौऐ श्राद्ध का भोजन ग्रहण कर लेते हैं तो पितृ प्रसन्न हो जाते है। कौऐ को भोजन कराना पर्यावरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उनकी बीट से ही पीपल एवं वट वृक्ष उत्पन्न होते हैं। प्रक्षण दूर करने के लिए जिनकी आज अतिआवश्यकता है।
सर्वपितृ अमावस्या : पितृपक्ष का समापन आश्विन मास की अमावस्या को होता है। इस तिथि को
सर्वपितृ अमावस्या या मोक्ष दायिनी अमावस्या भी कहते हैं। इस दिन ज्ञात-अज्ञात सभी पितरों के श्राद्ध का विधान है, जिन व्यक्तियों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि स्मरण नही होती है वह भी इस दिन उनके लिये श्राद्ध या तर्पण कर सकते हैं। इस दिन पितरों के निमित्त असहाय, निर्धन व्यक्ति को भोजन कराना, वस्त्र आदि देने से घर की आर्थिक परेशानी दूर होती है और समृद्धि बढ़ती है।
सांझी की आकृति बनाकर पूजा करना: श्राद्ध पक्ष में कुंवारी कन्याएं सौलह दिन तक सांझी की
आकृति का गोबर से निर्माण करती है। प्रतिदिन नई आकृति बनाकर उसे फूलों एवं चमकीली पन्नियों से सजाती है। संध्या के समय श्राद्ध के दिन जो पकवान बनाये जाते हैं उनका सांझी को भोग लगाकर गीत गाती हैं तथा प्रसाद वितरित करती हैं। राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश में अभी भी यह परम्परा प्रचलित है।
पितृपक्ष की अष्टमी को महालक्ष्मी जन्मोत्सव : वैसे तो श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित है किन्तु श्राद्ध पक्ष की अष्टमी को महालक्ष्मी जन्मोत्सव भी मनाने की प्रथा भी प्रचलित है। इसे महालक्ष्मी व्रत भी कहते है। महालक्ष्मी व्रत का पूजन संध्या समय किया जाता है। शाम के समय स्नान कर पूजा की चौकी पर लाल रंग का वस्त्र बिछाकर महालक्ष्मी की मूर्ति का सोने के आभूषणों से श्रृंगार करें। इसके बाद चावल से बनाये अष्ट कमल पर कलश रखें तथा माता की मूर्ति के सामने श्रीयंत्र, सोने, चांदी के सिक्के, मिठाई और फल रखें। लक्ष्मी जी को कमल के फूल की माला पहनाकर, घी का दीपक, धूप तथा अगरबत्ती से पूजा करें। पूजा के समय "ॐ योगलक्ष्मयै नमः", "ॐ आद्यलक्ष्मयै नमः", "ॐ सौभाग्यलक्ष्मयै नमः" मंत्र का 108 बार पूरी निष्ठा व श्रद्धा से जाप करें। अंत में माता लक्ष्मी जी की आरती करके भोग लगाकर प्रसाद वितरित करें। इस दिन सोना खरीदने का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इसदिन सोना खरीदने से लक्ष्मी जी कृपा से सोने में आठ गुना तक वृद्धि होती है और जीवन में कमी धन धान्य की कमी नहीं होती।
श्राद्ध करने का समय व निषिद्ध पदार्थ: श्राद्ध निश्चित समय में ही करना चाहिए। श्राद्ध कुतप बेला
अर्थात् दिन में ग्यारह बजकर छबीस मिनट से दोपहर बारह बजकर चौबीस मिनट में ही मुख्य रूप से करना चाहिए। श्राद्ध के दिन पवित्र भावों से भोजन बनाना चाहिए। श्राद्धकर्ता में तीन गुण पवित्रता, जल्दबाजी न करना और क्रोध नहीं करना परमावश्यक है। भोजन कराते समय पंडित जी से यह नहीं पूछना चाहिए कि भोजन कैसा है ? अन्यथा पितर निराश होकर लौट जाते हैं। जो प्राणी शान्तचित्त होकर विधि पूर्वक श्राद्ध करता है वह सभी पापों से मुक्त होकर दीर्घायु प्राप्त करता है तथा उसे संतान व धन-धान्य की प्राप्ति होती है।
श्राद्ध करने से लाभ : शास्त्रों में तीन ऋण-देव ऋण, ऋषि ऋण तथा पितृ ऋण मुख्य रूप से बताये गये हैं। यज्ञादि द्वारा देव ऋण तथा स्वाध्याय द्वारा ऋषि ऋण तथा श्राद्ध द्वारा पितृ ऋण उतारा जाता है। वास्तव में पितृ ऋण को पितरों के तर्पण श्राद्ध द्वारा उतारा जा सकता है। श्राद्ध पक्ष में मुझे भी मेरे पितरों की तरह गौरव प्राप्त कर जाना है उनका स्मरण करके उनके सुकृत्यों का जीवन में अनुकरण करना चाहिए।
बुजुर्गों एवं माता पिता के प्रति कृतज्ञ हों: साल में सिर्फ श्राद्ध पक्ष में ही माता-पिता बड़े बुजुर्गों का
सम्मान क्यों ? परन्तु आज तो हम श्रद्धा का ही श्राद्ध कर बैठे हैं परिणामतः मानव जीवन के सम्बन्ध भावना शून्य, ममत्व रहित और यंत्रवत बन गये हैं। तर्कशास्त्री अक्सर श्राद्ध का मजाक उड़ाते है
क्योंकि वे लोग श्राद्ध के वास्तविक मर्म को नहीं समझ सके हैं। आधुनिकता तथा पश्चिम के देशों की सभ्यता में रंगे व्यक्ति इसे कैसे समझ सकते हैं ? उनका तर्क है कि जब मुम्बई में खाया हुआ पदार्थ देहली में रहने वालों तक नहीं पहुँचता तो यहाँ ब्राह्मणों को खिलाया हुआ पितरों को कैसे पहुँच सकता है ? जरा सोचिये ? भारत में जमा कराये रूपये अमेरिका में प्राप्त होते है। मुम्बई के स्नेही की आवाज मोबाइल, टेलीफोन द्वारा अमेरिका में सुनाई देती है तो फिर भक्ति भाव से, शुद्ध अंतःकरण से और अनन्य श्रद्धा से किया हुआ श्राद्ध मंत्र शक्ति के द्वारा पितरों को तृप्ति दे सकता है यह बात तर्ककर्त्ताओं के मस्तिष्क में क्यों नहीं घुसती है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है ? उनकी इस गलत धारणा एवं भ्रान्ति को दूर करना हमारा कर्त्तव्य है। प्रभु हमें शक्ति प्रदान करें यही प्रार्थना है। इस श्राद्ध पक्ष की महत्ता को समझकर हमें अपने माता-पिता, बुजुर्गों के प्रति कृतज्ञता का संकल्प करना चाहिए।
कृष्णचन्द्र टवाणी प्रधान संपादक "अध्यात्म अमृत" ज्ञानमंदिर, सिटी रोड़ मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) 305801
मो-09252988221

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